Melbourne, the world's most liveable city and cultural capital of Australia, is the capital and most populous city in the state of Victoria, and the second-most populous city in Australia. Melbourne is known for its cultural, natural and entertainment attractions. Well, if I get a chance to visit this city, I will definitely enjoy my visit to the fullest.
फिज़ूल की बातें
Wednesday, August 15, 2012
Visiting Melbourne
Melbourne, the world's most liveable city and cultural capital of Australia, is the capital and most populous city in the state of Victoria, and the second-most populous city in Australia. Melbourne is known for its cultural, natural and entertainment attractions. Well, if I get a chance to visit this city, I will definitely enjoy my visit to the fullest.
Saturday, August 21, 2010
विडम्बना
हमारे अपने माननीय सांसद अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिये एक स्वर से एकमत हो गये । उन्हें इसके लिये इस बार थोडी बहस करनी पडी । अपने हित के लिये वो सभी दलगत विचारों से ऊपर उठकर सर्व सहमत हो गये । इसके लिये न कोई साम्प्रदायिक रहा, न कोई वामपंथी और न कोई पूँजीवादी ।
ये हम मतदाताओं के लिये बडे ही शर्म की बात है कि हमारे प्रतिनिधि अपना वेतन बढ़ाने के लिये कैबिनेट सचिव और कारपोरेट सेक्टर से तुलना कर रहे हैं । वो अपने संसदीय क्षेत्र में झोपड-पट्टी में रहने वाले, ठेले खोमचे वाले, गरीब मज़दूरों और गाँवों-देहातों में रहने वाले उन करोड़ो मतदाताओं से अपनी तुलना क्यों नही करते ? आज अगर वो माननीय सांसद है तो सिर्फ इन गरीब और मध्य्मवर्गीय मतदाताओं के कारण ।
इसके विपरीत किसानों से जबरदस्ती छीनी जा रही उनकी पुश्तैनी ज़मीनों का उचित मुआवज़ा पाने के लिये उन्हें लाठी-डन्डे और गोलियां खानी पड़ रही हैं । उन्हें अपनी जान देनी पड़ रही है । उन्हें अपने ही द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों से मुआवजा धनराशि बढ़ाने के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है ।
Sunday, August 15, 2010
आइये सोचें हम खून पिला रहे हैं या पी रहे हैं ?
आओ झुककर सलाम करें उन्हें, जिनकी जिन्दगी से ये मुकाम आया है,
किस कदर खुशनसीब हैं वो लोग, जिनका लहू देश के काम आया है ।
आज आजादी के पर्व पर हम सबको गम्भीरता के साथ यह चिन्तन करना चाहिए कि हमारा सोच, हमारे कार्य और जीवन देश को स्वस्थ, सम्पन्न और खुशहाल बनाने के लिए अर्पण हो रहा है या हम देश को अवनति की ओर ले जा रहे हैं । हम देश को अपना लहू पिला रहे हैं या देश का लहू पी रहे हैं । हम अपने कार्यों से देश को सींच रहे हैं या देश का लहू खींच रहे हैं । कहीं ऐसा तो नही कि हम अपने सोच और कार्यों से देश को दीमक और जोंक की तरह अन्दर ही अन्दर खोखला कर रहे हों । हम आने वाली पीढ़ी के लिए कैसा वातावरण और आदर्श छोडकर जा रहे हैं, क्या वो हमारे सोच और कार्यों पर गर्व करेगी । आज इस पर गम्मीरता से विचार करने की ज़रुरत है ।
ज़िन्दगी की असली उडान अभी बाकी है, ज़िन्दगी के कई इम्तिहान अभी बाकी है,
अभी तो नापी है मुट्ठी भर ज़मीन हमने, अभी तो सारा आसमान बाकी है ।
जय हिन्द
Thursday, July 15, 2010
अवतार
फिल्म निर्माता ने अपनी अदभुद कल्पनाशक्ति को परदे पर साकार कर दिया । उन्होंने दूसरे ग्रह के प्राणियों की एक नई भाषा ही रच डाली । फिल्म में दो सभ्यताओं का चित्रण है । एक तरफ हम प्रथ्वी वासी हैं जो विज्ञान के चरम तकनीकी ज्ञान से सम्रध्द और उसी ज्ञान के परिणामस्वरुप आकण्ठ लालच में डुबे हुए जिसमें हमने केवल सत्ता और धन की चाहत को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना डाला । इसके लिये हम लालच एवं स्वार्थ में अन्धे होकर जीवनदायनी और सहचर प्रक्रति को भी नष्ट करने में जरा भी संकोच नही करते। और दूसरी तरफ है पेण्ड्रोला ग्रह के वासी जो प्रक्रति को अपना नियन्ता मानते है और प्राक्रतिक नियमों का पालन करते हुए उससे भावनात्मक रुप से जुडे हुए हैं । जानवरों और पेड़-पौधों को भी अपना सहचर मानते हैं । उनके आचरण में पवित्र भावनात्मक एवं निर्मलता छलकती है । जो आत्मा को शान्ति प्रदान करती है । लेकिन हम अपने तकनीकी ज्ञान से उपजे लालची और स्वार्थी प्रव्रति के कारण कीमती पत्थर के लिये पेण्ड्रोला की सभ्यता को ही नष्ट कर देना चाहते हैं ।
पता नही फिल्म निर्माता का पटकथा लिखते समय क्या उद्देश्य था । व्यवसायिक या भावनात्मक । लेकिन मैनें फिल्म की पटकथा को भावनात्मक रुप से ग्रहण किया । जो हमारी सोच और जीवन शैली को बिलकुल स्पष्ट रुप से दर्शाती है । हम जिसे विज्ञान कहते हैं उसने हमें तकनीकी ज्ञान के चरम स्तर तक पहँचा दिया है और इस ज्ञान ने हमारे अन्दर घोर धन की और सत्ता की ललक पैदा कर दी है । हम दिन-रात केवल इसी को पाने के लिये प्रयासरत रहते हैं । इसके लिये हम जीवनदायनी प्रक्रति को निरन्तर खोखला करते जा रहे हैं । हम प्रक्रति को खोद-खोद कर पेट्रोल, कोयला, तांबा-लौह अयस्क, पत्थर, यूरेनियम, सोना-चाँदी, हीरे आदि बस निकालते ही जा रहे हैं । उसे अन्दर ही अन्दर खोखला कर रहे हैं। वनों का निरन्तर सफाया करते जा रहे हैं । दिन-रात प्रक्रति को लूटने में ही लगे हुए हैं। हम भूल गये हैं कि यह प्रक्रति हमारी नियन्ता/हमारी सहचर है । हमारे दूसरे ग्रहों के खोज अभियान भी सिर्फ वहाँ की प्राक्रतिक सम्पदाओं को लूटने मात्र के लिये हैं । तकनीकी ज्ञान ने या विज्ञान ने हमें भावहीन तथा विवेकहीन बना दिया है ।
ज्ञान के दो पक्ष होते हैं । एक पक्ष है रचनात्मक ज्ञान जो हमें भावुक और विवेकशील बनाता है । जो हमे आध्यात्मिक और आत्मज्ञानी बनाता है तथा जिसके सहारे हम अपने साथ-साथ पूरी स्रष्टि के कल्याण के लिये सोचते हैं और अपने जीवन को सार्थक बनाते हैं । जैसे बुद्ध, मोहम्मद साहब, ईसा मसीह, कबीर, तुलसी, गाँधी, मदर टेरेसा आदि-आदि महान व्यक्तित्व । ज्ञान का दूसरा पक्ष है विध्वंसक । जो ज्ञान हमें स्वार्थी, लालची, सत्ता लोलुप और मोह्ग्रस्त बनाता है वो ज्ञान का विध्वंसक रुप ही है । उसमें हमें केवल अपनी ही चिन्ता रहती है, हम केवल अपने बारे में ही सोचते हैं । हमारे सोच से या हमारे कार्य से दूसरे को होने वाले कष्ट या नुकस्सन की हमें कोई चिन्ता नही रहती । तकनीकी ज्ञान हमारे इस विध्वंसक सोच को और बल प्रदान करता है । हमारी चिन्तन की प्रव्रति को नष्ट करता है । हमारे वर्तमान जीवन-दर्शन में ज्ञान का यही विध्वंसक रुप नज़र आता है ।
अन्त में यही कहना चाहूँगा कि जो ज्ञान को विक्रत करे वही है विज्ञान ।
Sunday, May 23, 2010
पर्यावरण बचाओ------------ दादा ले पोता बरते अपनाओ
जब हम छोटे थे तो बाजार में खरीदारी करते समय अक्सर दुकानदार वस्तुओं की लम्बे समय तक चलने वाली चीज़ो की तारीफ करते हुए यही कहते थे कि ये ले लिजिए इसको दादा ले पोता बरते अर्थात आप खरीदिये और आपके पोते भी इसे इस्तेमाल करेगें । उस वक्त वस्तुओं को खरीदते समय हमारा उद्देश्य भी यही होता था कि हम टिकाऊ वस्तु खरीदें जिसे हम और हमारे बच्चे भी इस्तेमाल करें ।
हमारी अपनी संसक्रति भावनाप्रधान है । हम भौतिक पदार्थों से भी भावनात्मक समबन्ध रखते हैं । तभी तो पुरानी वस्तुओं को दिखाते समय हम गर्व से कहते हैं कि यह हमारे पिताजी की साइकिल है, यह सिलाई मशीन हमारी माताजी की है उन्हें शादी में मिली थी या ये मेज़-कुर्सी हमारे दादाजी की है आदि-आदि । हम इन वस्तओं को अपने से अलग नही कर पाते हैं और उनका इस्तेमाल सावधानी एवं गौरव के साथ करते हैं । हम पुरानी चीज़ों को इस्तेमाल करने के साथ-साथ प्रक्रति के अनावश्यक दुरुपयोग को भी रोकने का कार्य भी कर रहे होते हैं । क्योंकि पुरानी चीज़ों के इस्तेमाल से प्रक्रति में अनावश्यक कबाड इकट्ठा नही होता है ।
जबसे पूँजीवादी व्यवस्था ने हमारी अर्थव्यवस्था को अपने कब्जे में ले लिया है तबसे हमारी सोच-विचारधारा ही बदल गयी है । हमारी सोच भावनात्मक से स्वार्थपरक हो गयी है । हम केवल वर्तमान लाभ-हानि के बारे में ही सोचते हैं । हमारा ध्येय केवल यही होता है कि इसमें हमारा क्या फायदा है । पूँजीवादी व्यवस्था के फलने-फूलने का मूल मन्त्र USE AND THROW ही हमारे जीवनशैली KAAका आधार हो गया है । क्योंकि इसी मन्त्र के सहारे वो बाजार में निरन्तर माँग बनाए रखता है । हमारी जीवनशैली से प्रक्रति या समाज को क्या नुकसान हो रहा है उससे हमें कोई मतलब नही । हम अपनी USE AND THROW की निति से प्रक्रति और आने वाली पीढ़ी को कितना नुकसान पहुँचा रहे हैं हम इससे बिलकुल लापरवाह है । इस सोच से पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा है हम इससे बिलकुल लापरवाह हैं ।
यदि हम आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण देना चाहते हैं तो हमें दादा ले पोता बरते की निति अपनानी होगी ।
Sunday, May 16, 2010
परमाणु बम से भी खतरनाक बम का विस्फोट हो चुका है!
दो चेतावनी वाले महत्वपूर्ण समाचार
01- सावधान ! मोबाइल की एक काँल तोड़ सकती है परिवार---- दिनांक: 23/04/2010 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित एक समाचार कि महिला की आवाज़ में आई फोन कांल से कई परिवार टूटने के कग़ार पर जिसका सार यह है कि कुछ शैतानी तत्वों ने काँल चीटर एप्लीकेशन का प्रयोग कर कई परिवारों में कलह पैदा कर दी ।
02- चाइल्ड पोर्नोग्राफी में ले, कर्नल गिरफ्तार-----दिनांक 08/05/2010 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित समाचार ।
परमाणु बम से भी खतरनाक बम का विस्फोट हो चुका है!
जी हाँ परमाणु बम से भी अधिक खतरनाक बम का विस्फोट हो चुका है और जिसने पुरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है । और ये बम है टेलीवीजन/इण्टरनेट और मोबाइल । इसके वायरस का नाम है संचार वाय्रस । इसके वायरस धीरे-धीरे सम्पूर्ण मानव जाति को सुक्ष्म रुप से अपनी चपेट में ले रहे हैं। दुनिया को इसके चंगुल से निकाल पाना अब लगभग असंभव है। इसके वायरस के चपेट में आते ही मनुष्य की गतिशीलता कम हो जाती है । इसके वायरस सीधे मानव के मस्तिस्ष्क पर हमला कर उसके सोचने-समझने की शकित को असंतुलित करते हैं । जिससे मानव में विवेक/सहनशीलता और उचित निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है । इसके वायरस मानव की सहनशीलता को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाते हैं। जिससे उनमें आत्मह्त्या, दूसरों को नुकसान पहुँचाने की प्रवऋत्ति और दुसरो पर हिंसा करने की प्रवऋत्ति उभरती हैं । मानव में नकारात्मक प्रवऋत्ति को बटाते है, उनकी रचनात्मक शकित को नष्ट करते हैं ।
इसके वायरस मानव में वंशानुगत प्रभाव डालते हैं अर्थात इसका दुष्प्रभाव मानव की संतान पर उससे ज्यादा पड़ता है । इसका कारण यह है कि टेलीवीजन/इण्टरनेट मोबाइल जरुरत से ज्यादा जानकारी मानव के मस्तिष्क पर प्रवेश कराते हैं । और अधिक/अनावशयक जानकारी होना मानव मस्तिष्क के लिए बहुत ही खतरनाक होता है । इसके वायरस सुक्ष्म रुप से स्वत: ही अगले वंश में चले जाते हैं ।
जिस तरह परमाणु की जानकारी समाज के लिए बहुत ही सीमित रुप में लाभकारी है और उसके ज्ञान पर नियन्त्रण की आवशयकता है । उसी तरह टेलीवीजन/इण्टर्नेट और मोबाइल समाज के लिए बहुत ही लाभकारी है अगर उसको कठोर और नियन्त्रित तरीके से समाज को उपलब्ध कराया जाये । इस पर कडी निगरानी की आवशयकता होती है ।
परन्तु आज दुनिया की सभी सरकारों का मुख्य उद्देश्य है कि टेलीवीजन/इण्टर्नेट/मोबाइल की सेवा को सस्ती से सस्ती दरों पर प्रत्येक व्यक्ति को चौबीस घण्टे उपलब्ध कराना ।
आज टेलीवीजन के हजारों चैनल हैं, इण्टर्नेट की लाखों साइटें हैं क्या यह सब मानव के लिए आवशयक हैं। अगर अनावशयक चैनल और साइटों को नियन्त्रित कर बन्द कर दिया जाये और केवल उपयोगी चैनल/साइट ही समाज को उपलब्ध कराई जाये तो ये समाज के लिए लाभकारी होगा । समाज के हर व्यकित(निम्न आय वर्ग के लोगों) के हाथ में मोबाइल देने की अपेक्षा केवल जरुरतमन्द लोगों को ही मोबाइल उपलब्ध कराना समाज के लिए हितकारी होगा । मोबाइल को इतना सस्ता करना केवल निम्न आय वर्ग(जिनको मोबाइल की आवशयकता नही) के धन को पूँजीपतियों के हाथों में पहुँचाना है ।
आज दुनिया की सभी सरकारों की संचार निति को देखकर यही लगता है कि संचार वायरस के दुष्प्रभाव से दुनिया को बचाना असम्भव है ।
Wednesday, May 12, 2010
पारंपरिक धर्म ने हमें इन्सान से हिन्दू-मुसलमान बना दिया !
हमारा अस्तित्व गर्भ में आते ही यह समाज पूरी जिम्मेदारी के साथ हमारा पूरा ख्याल रखता है और संसार मेंहमारे सकुशल आगमन की व्यवस्था करता है । इस कारण जन्म लेते ही अनेक लोगों के प्रति हम ॠणी हो जातेहैं। फिर जन्म से लेकर जिविकोपार्जन शुरु करने तक चिकित्सक, नर्स, माता-पिता, गुरु, अनेक सम्बन्धी और छोटे-बडे लोगों का सहयोग हमें मिलता है । उनके सम्मिलित सहयोग से हम संसार के प्रवाह में तैरने लायक हो पाते हैं। इस प्रक्रिया में हम और अधिक लोगों के प्रति ॠणी हो जाते हैं । क्योंकि अभी तक हम समाज से ले ही रहे होते हैं और लेने वाला स्वत: ही देनदार हो जाता है ।
इन सामाजिक ॠणों से उॠण होने का एक ही उपाय है और वो है सच्चा इन्सान बनना । सच्चा इन्सान बनकर ही हम सामाजिक दायित्वों को पूरा कर अपना जीवन सार्थक कर सकते हैं। इसलिए इन्सानियत ही मानव कास्वाभाविक धर्म है । इसका पालन करने के लिए हमें रुडियों की या मान्यताओं की आवश्यकता नही होती ।
इसके विपरीत आज जब कोई संसार में जन्म लेता है तो जन्म लेते ही पारंपरिक धर्म के बन्धन में हम उसे जकड़ देते हैं । जैसे अगर कोई हिन्दू परिवार में जन्म लेता है तो हम उसे हिन्दू धर्म से, मुस्लिम परिवार में जन्म लेने पर उसे इस्लाम धर्म से, ईसाई परिवार में जन्म लेने पर उसे क्रिशचियन धर्म से, सिक्ख परिवार में जन्म लेने पर उसे सिक्ख धर्म के बन्धनों से जकड़ देते हैं ।
नवजात/पवित्र ह्रदय शिशू को हम पारंपरिक धर्म के कठोर-कटींले बन्धनों से जकड़ देते हैं, उसके चारों ओर एकबाड लगा देते हैं । जैसे अगर वो हिन्दू है तो उसे क्या करना है क्या नही । हिन्दू है तो उसे मन्दिर जाना है, जनेउपहननी है । कौन-कौन से भगवान की किस-किस तरह पूजा करनी है, कौन-कौन से त्योहार किस-किस तरहमनाने है, क्या खाना है । कौन-कौन से संस्कार करने है, कैसे विवाह करना है, म्रृत्यु में क्या कर्मकांड करने है आदि-आदि । इसी तरह समाज के हर पारंम्परिक धर्म के लोग यही बन्धन की प्रक्रिया अपनाते हैं।
प्रक्रति शिशु को संसार में अपार संम्भानओं के साथ अवतरित करती है । उसमें दिये की रोशनी से लेकर सूर्य कीतरह तेजस्वी होने तक की सम्भावना रहती है । उसके उडान भरने के लिए विशाल पंख और अथाह गगन होता है।लेकिन हम जन्म के साथ ही उसको पारम्परिक धर्म के बन्धनों में जकड़ कर उसके तेजस्वी होने या उँची उडानभरने की क्षमताओं पर कुठाराघात कर देते हैं । हम उसके विशाल स्वरुप की सम्भावनाओं को सीमित कर देते हैं ।हम शिशु को फैलने के लिये पूरी वसुधा की जगह केवल एक गमला प्रदान करते हैं ।
यह पारंम्परिक धर्म नवागत शिशु को इन्सान नहीं हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई बनाता है ।