मानव के जन्म के साथ ही उसका धर्म उससे जुड जाता है । यह धर्म होता है इन्सानियत का, सेवा भाव का, सहिष्णुता और उदारता आदि का । यह स्वाभिक धर्म होता है । हम इसे अपनाने के लिये बाध्य होते हैं । क्योंकिहमारे जन्म लेने से पहले ही दुनिया अस्तित्व में थी । दुनिया में सभी प्राणी मौजूद थे और उनके बीच में हम एकनये प्राणी के रुप में जन्म लेते हैं ।
हमारा अस्तित्व गर्भ में आते ही यह समाज पूरी जिम्मेदारी के साथ हमारा पूरा ख्याल रखता है और संसार मेंहमारे सकुशल आगमन की व्यवस्था करता है । इस कारण जन्म लेते ही अनेक लोगों के प्रति हम ॠणी हो जातेहैं। फिर जन्म से लेकर जिविकोपार्जन शुरु करने तक चिकित्सक, नर्स, माता-पिता, गुरु, अनेक सम्बन्धी और छोटे-बडे लोगों का सहयोग हमें मिलता है । उनके सम्मिलित सहयोग से हम संसार के प्रवाह में तैरने लायक हो पाते हैं। इस प्रक्रिया में हम और अधिक लोगों के प्रति ॠणी हो जाते हैं । क्योंकि अभी तक हम समाज से ले ही रहे होते हैं और लेने वाला स्वत: ही देनदार हो जाता है ।
इन सामाजिक ॠणों से उॠण होने का एक ही उपाय है और वो है सच्चा इन्सान बनना । सच्चा इन्सान बनकर ही हम सामाजिक दायित्वों को पूरा कर अपना जीवन सार्थक कर सकते हैं। इसलिए इन्सानियत ही मानव कास्वाभाविक धर्म है । इसका पालन करने के लिए हमें रुडियों की या मान्यताओं की आवश्यकता नही होती ।
इसके विपरीत आज जब कोई संसार में जन्म लेता है तो जन्म लेते ही पारंपरिक धर्म के बन्धन में हम उसे जकड़ देते हैं । जैसे अगर कोई हिन्दू परिवार में जन्म लेता है तो हम उसे हिन्दू धर्म से, मुस्लिम परिवार में जन्म लेने पर उसे इस्लाम धर्म से, ईसाई परिवार में जन्म लेने पर उसे क्रिशचियन धर्म से, सिक्ख परिवार में जन्म लेने पर उसे सिक्ख धर्म के बन्धनों से जकड़ देते हैं ।
नवजात/पवित्र ह्रदय शिशू को हम पारंपरिक धर्म के कठोर-कटींले बन्धनों से जकड़ देते हैं, उसके चारों ओर एकबाड लगा देते हैं । जैसे अगर वो हिन्दू है तो उसे क्या करना है क्या नही । हिन्दू है तो उसे मन्दिर जाना है, जनेउपहननी है । कौन-कौन से भगवान की किस-किस तरह पूजा करनी है, कौन-कौन से त्योहार किस-किस तरहमनाने है, क्या खाना है । कौन-कौन से संस्कार करने है, कैसे विवाह करना है, म्रृत्यु में क्या कर्मकांड करने है आदि-आदि । इसी तरह समाज के हर पारंम्परिक धर्म के लोग यही बन्धन की प्रक्रिया अपनाते हैं।
प्रक्रति शिशु को संसार में अपार संम्भानओं के साथ अवतरित करती है । उसमें दिये की रोशनी से लेकर सूर्य कीतरह तेजस्वी होने तक की सम्भावना रहती है । उसके उडान भरने के लिए विशाल पंख और अथाह गगन होता है।लेकिन हम जन्म के साथ ही उसको पारम्परिक धर्म के बन्धनों में जकड़ कर उसके तेजस्वी होने या उँची उडानभरने की क्षमताओं पर कुठाराघात कर देते हैं । हम उसके विशाल स्वरुप की सम्भावनाओं को सीमित कर देते हैं ।हम शिशु को फैलने के लिये पूरी वसुधा की जगह केवल एक गमला प्रदान करते हैं ।
यह पारंम्परिक धर्म नवागत शिशु को इन्सान नहीं हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई बनाता है ।
ज्ञानदत्त जी से जलने वालों! जलो मत, बराबरी करो. देखिए
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