Wednesday, May 5, 2010

???-??? मौसेरे भाई

27 अप्रैल को पूरे विपक्ष ने महंगाई विरोध दिवस मनाया पूरे देश में जोरदार धरना-प्रदर्शन किया उत्तर प्रदेश मेंतीन बसों में आग लगा दी गई संसद में खूब जोरदार बहस हुई विपक्ष के बडे-बडे नेताओं ने महँगाई पर सरकारकी नितियों की जमकर आलोचना की फिर कटौती प्रस्ताव आया और सारा विपक्ष बिखर गया कुछ विपक्षीदलों ने बहिष्कार कर दिया विपक्ष के दल एकमत नहीं हो पाये जनता की रोज़ की जिन्दगी से जुडे इतनेमहत्वपूर्ण और वास्तविक मुद्दे पर पूरा संसद एकमत नही हो पाया
इसके विपरीत अभी कुछ माह पूर्व सांसदों के वेतन भत्ते और सूविधाओं को बढाने वाला बिल आया तो सदन में कोईहंगामा या वाँयकाट नही हुआ कांग्रेस, सादगी पसंद त्रणमूल कांग्रेस, भाजपा, वामदल, सपा एवं बसपा सभी नेएकमत होकर कुछ मिनटों में ही बिल पास कर दिया तब विपक्ष और सत्ता पक्ष को भाजपा जैसी पार्टी के साथ सुरमिलाने और मतदान करने में कोई दोष नज़र नही आया

वेतन-भत्ते और सुविधाओं को बढाने वाले बिल पर सभी सांसद एक हो जाते हैं और महँगाई जैसे जनहित के मुद्देपर बिखर जाते हैं
ऐसा? क्यों

Friday, April 30, 2010

तथाकथित धर्मगुरुओं की सम्पन्नता और उनके नाचने का कारण

आज टेलीविजन पर अनेक धर्मगुरु भव्य पण्डालों में संगीत के सधे हुए साज़ों के साथ अपनी वाकपटुता एंव बाँडी लैंग्वेज का सुन्दर प्रयोग करते हुए प्रवचन देते हुए नज़र आते हैं । प्रवचन के बीच-बीच में तालियों की गडगडाहट सुनाई पडती है । जैसे पहले दौर में किसी फिल्म में कोई हीरो जब जोरदार डायलॉग बोलता था तो हाल तालियों की गडगडाहट से गुँज जाता था । पर अब सिनेमाहॉलों में तालियाँ नही बजती हैं । अब तो चाहे प्रवचन हो या कथा पुराण दोनों में नाचने का प्रचलन भी खूब हो गया है। यह नाचने की प्रव्रति दिन-प्रतिदिन बडती ही जा रही है ।

प्रवचन या कथा पुराण के श्रवण से आत्मिक एवं भावनात्मक सुख मिलता है तब हमारा आन्तरिक मन आनन्दित होता है । आध्यात्मिक ज्ञान तो हमें आत्मा और देह के अन्तर का ज्ञान कराता है । जो ज्ञान हमारी देह को आनन्दित कर रहा है वो वास्तव में भौतिक ज्ञान है । घोर भौतिक सुखों में लिप्त ये तथाकथित धर्मगुरु हमें देह ज्ञान के अलावा और दे भी क्या सकते हैं । इसलिए इनके प्रवचनों के असर से श्रोतागण फूहड नाच करने लगते हैं ।

इसके विपरीत मीरा के भक्तिमय रस में डूबे हुए शालीन मगन रुप को स्मरण कर मन आत्मविभोर हो जाता है, मन में भक्तिभाव उत्पन्न हो जाता है । हमने सूर, तुलसी, कबीर, गाँधी, विनोबा भावे और मदर टेरेसा को नाचते हुए कभी नही देखा और न ही उन्हें घोर भौतिक सुखों में लिप्त देखा है ।

अगर गहराई से देखा जाये तो ये तथाकथित धर्मगुरु ज्ञान बोध पर नही अपनी चरम भौतिक सत्ता प्राप्ति के बोध पर गाने-नाचने को आतुर रहते हैं । और इनकी तथाकथित धार्मिक सत्ता का मूलाधार होता है अधर्म से गहरा समझौता कि न हम तुम्हारे खिलाफ बोलेगें न हम अपने भक्तों को अधर्म के खिलाफ जाने देगें । अधार्मिक शक्तियाँ कहती हैं कि हम भी तुम्हारे मार्ग में कोई बाधा खडी नही करेगें।

Saturday, April 24, 2010

मांसाहार क्यों नही !

मैं पहले मांसाहारी था । मांस और मछ्ली के तरह-तरह के व्यंजन बडे ही शौक से खूब चाव के साथ खाता था । अपने खाने के स्वाद के शौक में जानवर की होने वाली हत्या की ओर कभी मेरा ध्यान ही नही जाता था । तथा अपने इस स्वाद के शौक में मुझसे हो रही भयकंर भूल की ओर कभी मेरा ध्यान ही नही गया ।
वर्ष 1987 में बद्रीनाथ की यात्रा के बाद मेनें मासांहार भोजन खाना बन्द करने का फैसला किया । तब उस फैसले का कारण जीव हत्या के दोष से बचना था । जब कोई भी मुझसे मांसाहार त्यागने कारण पूछता था तो मैं यही वजह बताता था । पर यह तर्क मुझे पूर्ण सन्तुष्टि नही प्रदान कर पाता था । मैं मांसाहार त्यागने का स्वयं में ही विशलेषण करता रहता था ।
पर अगर अब मुझसे कोई भी मांसाहार न करने का कारण पूछता है तो मैं पूरी द्रढता के साथ कहता हुं कि मांसाहार करने वाले भावुक नही होते । क्योंकि अगर उनमे भावुकता होती तो वो कैसे किसी जीव की हत्या केवल अपने स्वाद के लिए करते । जबकि प्रक्रति में बिना जीव हत्या के खाने की चीजों के विकल्प उपलब्ध हैं । जब हमारे किसी प्रिय को यदि हल्की सी भी खरोंच या चोट लगती है तो हम परेशान हो जाते हैं उसके इलाज़ में जुट जाते हैं । हम उसकी तकलीफ़ के दर्द को महसूस करते हैं । क्योंकि हम भावना के साथ उससे जुडे होते हैं । परन्तु अपने भोजन के लिए हमें जीव हत्या में हल्का सा भी दर्द महसूस नही होता क्योंकि प्राणी होने के उपरान्त भी हमारा उनसे भावनात्मक द्रष्टिकोण नही होता । अगर हममें भावुकता होती तो हम कैसे किसी जीव की हत्या केवल अपने स्वाद के लिए करते । इसलिए मैं द्रडता के साथ कहता हुं कि मांसाहारी भावुक नहीं होते । दुनिया में अगर मांसाहार बन्द हो जाये तो आधे से अधिक अधर्म के कार्य खत्म हो जायें ।
जगदीश चन्द्र पन्त,
लखनऊ

Monday, April 19, 2010

अनाचार/अव्यवस्था/भ्रष्टाचार का मूल कारण

हम जब भी कुछ सोचते हैं या किसी भी कार्य को करते हैं, तो इन दोनों अवस्थाओं के मूल में हमारी भावना निहित होती है । जो अप्रत्यक्ष होती है लेकिन सोच और कार्य की आत्मा होती है । उसी मूल के आधार पर हमारी सोच/कार्य का फलितार्थ छुपा होता है । हम जो भी विचार/कार्य जिस भावना से करते हैं उसके फलीफूत होने पर उसके मूल में छुपी हमारी भावना स्पष्ट रुप से झलकती है।
ससार में मानव का कोई भी विचार/कार्य बिना भावना के नही होता ।
प्रक्रति ने केवल मानव को ही सोचने-समझने के लिये बुद्धि प्रदान की है ताकि वो विवेक और सदभाव से विचार/कार्य कर सके । प्रक्रति ने पेड़-पोधों और जानवरों को यह क्षमता प्रदान नही की है । वो प्रक्रति के नियमों के अनुसार स्वयं संचालित होते हैं । इसलिए वो प्रक्रति के सच्चे सहचर हैं । संसार में हम मानव लोगों का उत्तरदायित्व भी सबसे अधिक है ।
आज समाज में नेता में देशहित/सामाजिक हित की, शिक्षक में छात्रहित की, चिकित्सक में मरीज़हित की, व्यापारी में गाहकहित की, वकील में मुवक्किल के हित की, सरकारी सेवकों में विभागीयहित की, पत्रकारिता में लोकहित की भावना नही है । जिसका असर समाज में सर्वत्र दिखायी दे रहा है ।
आज़ हमारे विचार/कार्य केवल व्यक्तिगत और पारिवारिक हित की भावना से जुड़े हुए हैं ।
इस सबका मूल कारण यह है कि विचार/कार्य में उसकी मूल आत्मा भावना के व्यापक महत्व हमने बिलकुल भुला दिया है । हम केवल संकुचित भावना से संसार में विचार/कार्य कर रहे हैं, और जो अनाचार/अव्यवस्था/भ्रष्टाचार के रुप में समाज में सर्वत्र नज़र आ रहा है ।

जगदीश चन्द्र पन्त,
लखनऊ

Sunday, April 18, 2010

प्रसाद

मैं जब कभी मन्दिर जाता था तो भगवान को प्रसाद चढाने के साथ-साथ थोडा प्रसाद भगवान को खिलाने के लिए उनके मुँह पर भी प्रसाद रखता था परन्तु भगवान प्रसाद ग्रहण न कर नीचे गिरा देते थे । और भगवान का प्रसाद ग्रहण न करना मेरी सोच का विषय बन जाता । आखिर भगवान प्रसाद ग्रहण क्यों नही करते? क्या प्रसाद स्वादिष्ट नही था? भगवान को कौन सा प्रसाद प्रिय है? आदि-आदि ।
आज प्रसाद चढाने पर फिर वही हुआ । लेकिन आज में अपने को रोक नही पाया और मैनें प्रभु से पुछा कि आप क्यों प्रसाद ग्रहण नही करते? लेकिन उत्तर के स्थान पर हमेशा की तरह वो मुस्कान बिखेरते रहे । मैनें फिर प्रश्न दोहराया फिर वही मुस्कान । फिर प्रश्न फिर मुस्कान । मैनें बहुत विनती की पर हर बार जबाब में मुस्कान । अन्त में मैनें प्रभु के चरणों में सिर रख दिया और विनती की प्रभु शंका का समाधान कीजिए और मैं आँख मूँदकर ध्यान में लीन हो गया । तब मुझे आवाज़ सुनाई दी कि तुम मुझे जो नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोग लगाते हो और दूध आदि अर्पित करते हो मैं चाहकर भी उनको स्वीकार नही कर पाता । क्योंकि जब मैं मन्दिर के बाहर अपने अनेकों बच्चों/स्त्री/पुरषों को प्रसाद पर झपटते और प्रसाद के लिए धक्का-मुक्की करते देखता हुं तो तुम्हारा प्रसाद मेरे से ग्रहण नही किया जाता । और भला मैं कैसे ग्रहण कर सकता हुं जब बाहर मेरे बच्चे भूखे बैठे हों । इसलिए हे वत्स अगर तुम अपना प्रसाद मुझे खिलाना चाह्ते हो तो वो प्रसाद दुध आदि मन्दिर के बाहर बैठे मेरे अनन्य भक्तों को खिलाओ जो अपनी भूख शान्त करने की आशा में मेरे दर पर बैठे हुए हैं उनकी प्रसन्नता ही मेरी डकार है ।
प्रभु आपने मेरी बहुत बडी जिज्ञासा को शान्त कर दिया । परन्तु स्वामी अब एक प्रश्न और है कि आपको सीधे अर्पित किये जाने के लिए क्या चढाऊँ जिसे आप सहर्ष स्वीकार करें?
प्रभु बोले वत्स तुम तो जानते ही हो कि मुझे सबसे प्रिय भावना ही है और मैं तुमसे केवल भावना के कारण ही जुडा हुआ हुं और उसी भावना के कारण तुम्हारी जिज्ञासाओं का समाधान कर रहा हुं। मुझे कोई भी सांसारिक वस्तु प्रिय नही है और जो प्रिय है उसे तुम अर्पण नही कर पाओगे इसलिये पूछना व्यर्थ है!
मैनें कहा प्रभु कोशिश करुँगा क्रपया अपना प्रिय प्रसाद बताइए ।
प्रभु बोले तो सुनो वत्स मुझे जिस प्रसाद को ग्रहण करके अपार सन्तुष्टि मिलती है, वो है मनुष्य का काम, क्रोध, लोभ, मोह, और अहंकार । जब कोई भक्त मुझे इनका भोग लगाता है तो वो भक्त मुझे बहुत ही प्रिय हो जाता है और तब मैं स्वंय उसका भक्त हो जाता हुं तब मुझे उसका सारथी बनना भी अच्छा लगता है ।
प्रभु के उत्तर से मैं नि:प्रश्न हो गया । प्रभु ने मुझसे मेरी सबसे प्रिय चीजें मांग ली जो मैं अर्पित नही कर सकता था और मैनें धीरे से आँखें खोली देखा प्रभु हमेशा की तरह मुस्कुरा रहे थे पर अब उनकी मुस्कुराहट मैं प्रश्न था क्यों मुझे अपना काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का प्रसाद नही खिलाओगे?
मैं सर झुकाये चुपचाप मन्दिर से बाहर आ गया ।
जगदीश चन्द्र पन्त,
लखनऊ

Friday, April 16, 2010

आतंकवाद/नक्सलवाद/भ्रष्टाचार इन सबका बस एक ही उपचार

हमारे देश का शासन चलाने वाले रोज़ आतंवाद/नक्सलवाद/भ्रष्टाचार के विरोध में बयान देते रहते हैं । संसद में आतंकवाद से लडने की और उसको खत्म करने की घोषणा की जाती है । आतकंवाद/नक्सलवाद से लडने के लिए अत्यानुधिक हथियारों को खरीदने की घोषणा की जाती है, लेकिन यह तीनों खत्म होने की बजाय और बढने लगते हैं । खुफिया तन्त्र आये दिन आतकंवादी हमला होने की आशंका ज़ाहिर करता रहता है । हमारे देश के शासकों की वर्तमान नितियाँ ऐसी हैं कि उनसे आतंकवाद/नक्सलवाद/भ्रष्टाचार को भरभूर प्रोत्साहन मिलता है, इसलिए ये खत्म होने की बजाय और फलते-फूलते हैं ।
जो शासन आतंकवाद/नक्सलवाद/भ्रष्टाचार को खत्म करने की घोषणा करता है वो अपने देशवासियों को ग़ुमराह कर रहा है और उनको धोखा दे रहा है । क्योंकि अधर्म का अस्तित्त्व हमेशा रहा है । सतयुग/त्रेतायुग/ द्वापरयुग में भी अधार्मिक प्रवऋत्तियॉ थी । भगवान के साथ-साथ राक्षस हमेशा मोज़ूद रहे हैं ।
जिस शासन व्यवस्था में अधर्म नियन्त्रण में रहे वही शासन व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ है । इसलिए अधर्म को खत्म करना नही उसको नियन्त्रित करना उद्देश्य होना चाहिए ।
हमारे शासक अगर वास्तव में आतंकवाद/नक्सलवाद को नियन्त्रित करना चाहते हैं तो इसका एकमात्र उपचार है संसद/राज्य सभा/विधान सभा/विधान परिषद से अपराधी/भ्रष्ट और संदिग्ध चरित्र वाले सदस्यों को इन पवित्र स्थानों से बाहर कर दिया जाये और उनके अन्दर कानून का इतना ख़ौफ पैदा कर दिया जाये कि वो इन भवनों में घुसने के बारे में भी न सोंचे । इस एकमात्र उपाय से हमारे देश में अधर्म पूरी तरह से निशचित रुप से नियन्त्रित हो जायेगा ।
तब हमारे सुरक्षा बलों को आतंकवादियों/नक्सलवादियों से लडने के लिये जंगलों में नही भटकना पडेगा और आपरेशन ग्रीन हंट की भी ज़रुरत नही पडेगी ।
जगदीश चन्द्र पन्त,
लखनऊ

Tuesday, March 30, 2010

अमीर की नीयत/ग़रीब की नीयत

अखबार में छपी एक खबर

लखनऊ में एक वैवाहिक समारोह में शामिल होने आये गाजियाबाद के दम्पत्त्ति ने हजरतगंज के बाज़ार में खरीदारी की । जब वह टेम्पो से गोमती नगर स्थित होटल त्ताज़ लोट रहे थे तो उनका पर्स टेम्पो में ही छूट गया । लेकिन ईमानदार चालक मिठाई लाल ने पर्स में रखे करीब पाँच लाख रुपये के ज़ेवरात और पैंतालिस ह्ज़ार रुपये की नकदी उन्हें सौंप दी । दम्पत्ति ने चालक को पाँच सौ रुपये इनाम दिया ।

उपरोक्त घटना समाज के दो आर्थिक वर्गो से जुड़ी हुई है । एक है समाज का उच्च आय वर्ग जो फाइव स्टार होटलों में ठहरता है, जहॉ एक रात रुकने का खर्च ही हज़ारों रुपये है । ऐसे होटलों में रुकने का मतलब है कि वो पैसों से ज्यादा अपने ऐशो आराम को महत्व देता है । और दूसरा है समाज का अति साधारण वर्ग जिसे दिन भर में तीन-चार सौ रुपये कमाने के लिए सुबह से शाम तक घण्टों टेम्पो चलानी पडती है तब कहीं जाकर वो मुश्किल से अपने परिवार की आवश्यकताओं को पूरा कर पाता है ।

इस घटना में समाज के दोनों आर्थिक वर्गों का सम्पूर्ण तो नहीं लेकिन अधिसख्य लोगों के चरित्र का दर्शऩ होता है । फाइव स्टार होटलों में रुकने वाला उच्च आय वर्ग पाँच लाख पैंतालीस हज़ार के ज़ेवर/नकदी वापस मिलने पर बेहद खुश होने पर मात्र पाँच सौ रुपये टेम्पो चालक को इनाम देकर अपने को गोरांवित महसूस करता है। उसकी ईमानदारी उच्च आय वर्ग की नज़र में बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण नही है, लेकिन यही वर्ग व्यवसाय आदि में साढे पाँच लाख रुपये के लाभ के लिए पाँच-दस परसेन्ट कमीशन(रिश्वत/बेईमानी) देने के लिये सहर्ष तैय्यार हो जाता है।

वहीं दूसरी तरफ अति साधारण आय वर्ग का(टेम्पो चलाने वाला) लाखों रुपये के ज़ेवरात/नकदी मिलने पर भी अपने ईमान को डिगने नही देता । और वो कीमती वस्तुओ को अपने ईमान की खातिर सहर्ष उसके मालिक को सौंप देता है ।

समाज के उत्थान के लिए बहुत जरुरी है कि हम समाज में व्यक्तियों की अच्छाईयों को उचित सम्मान और पुरस्कृत करना सीखें । तभी समाज का वातावरण खुशनुमा होगा ।

समाज के अमीर लोगो से यही विनती है कि वो समाज के ईमानदार और मेहनतकश लोगों को उचित मेहनताना/सम्मान प्रदान करें ।

जगदीश चन्द्र पन्त,

लखनऊ ।