मैं जब कभी मन्दिर जाता था तो भगवान को प्रसाद चढाने के साथ-साथ थोडा प्रसाद भगवान को खिलाने के लिए उनके मुँह पर भी प्रसाद रखता था परन्तु भगवान प्रसाद ग्रहण न कर नीचे गिरा देते थे । और भगवान का प्रसाद ग्रहण न करना मेरी सोच का विषय बन जाता । आखिर भगवान प्रसाद ग्रहण क्यों नही करते? क्या प्रसाद स्वादिष्ट नही था? भगवान को कौन सा प्रसाद प्रिय है? आदि-आदि ।
आज प्रसाद चढाने पर फिर वही हुआ । लेकिन आज में अपने को रोक नही पाया और मैनें प्रभु से पुछा कि आप क्यों प्रसाद ग्रहण नही करते? लेकिन उत्तर के स्थान पर हमेशा की तरह वो मुस्कान बिखेरते रहे । मैनें फिर प्रश्न दोहराया फिर वही मुस्कान । फिर प्रश्न फिर मुस्कान । मैनें बहुत विनती की पर हर बार जबाब में मुस्कान । अन्त में मैनें प्रभु के चरणों में सिर रख दिया और विनती की प्रभु शंका का समाधान कीजिए और मैं आँख मूँदकर ध्यान में लीन हो गया । तब मुझे आवाज़ सुनाई दी कि तुम मुझे जो नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोग लगाते हो और दूध आदि अर्पित करते हो मैं चाहकर भी उनको स्वीकार नही कर पाता । क्योंकि जब मैं मन्दिर के बाहर अपने अनेकों बच्चों/स्त्री/पुरषों को प्रसाद पर झपटते और प्रसाद के लिए धक्का-मुक्की करते देखता हुं तो तुम्हारा प्रसाद मेरे से ग्रहण नही किया जाता । और भला मैं कैसे ग्रहण कर सकता हुं जब बाहर मेरे बच्चे भूखे बैठे हों । इसलिए हे वत्स अगर तुम अपना प्रसाद मुझे खिलाना चाह्ते हो तो वो प्रसाद दुध आदि मन्दिर के बाहर बैठे मेरे अनन्य भक्तों को खिलाओ जो अपनी भूख शान्त करने की आशा में मेरे दर पर बैठे हुए हैं उनकी प्रसन्नता ही मेरी डकार है ।
प्रभु आपने मेरी बहुत बडी जिज्ञासा को शान्त कर दिया । परन्तु स्वामी अब एक प्रश्न और है कि आपको सीधे अर्पित किये जाने के लिए क्या चढाऊँ जिसे आप सहर्ष स्वीकार करें?
प्रभु बोले वत्स तुम तो जानते ही हो कि मुझे सबसे प्रिय भावना ही है और मैं तुमसे केवल भावना के कारण ही जुडा हुआ हुं और उसी भावना के कारण तुम्हारी जिज्ञासाओं का समाधान कर रहा हुं। मुझे कोई भी सांसारिक वस्तु प्रिय नही है और जो प्रिय है उसे तुम अर्पण नही कर पाओगे इसलिये पूछना व्यर्थ है!
मैनें कहा प्रभु कोशिश करुँगा क्रपया अपना प्रिय प्रसाद बताइए ।
प्रभु बोले तो सुनो वत्स मुझे जिस प्रसाद को ग्रहण करके अपार सन्तुष्टि मिलती है, वो है मनुष्य का काम, क्रोध, लोभ, मोह, और अहंकार । जब कोई भक्त मुझे इनका भोग लगाता है तो वो भक्त मुझे बहुत ही प्रिय हो जाता है और तब मैं स्वंय उसका भक्त हो जाता हुं तब मुझे उसका सारथी बनना भी अच्छा लगता है ।
प्रभु के उत्तर से मैं नि:प्रश्न हो गया । प्रभु ने मुझसे मेरी सबसे प्रिय चीजें मांग ली जो मैं अर्पित नही कर सकता था और मैनें धीरे से आँखें खोली देखा प्रभु हमेशा की तरह मुस्कुरा रहे थे पर अब उनकी मुस्कुराहट मैं प्रश्न था क्यों मुझे अपना काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का प्रसाद नही खिलाओगे?
मैं सर झुकाये चुपचाप मन्दिर से बाहर आ गया ।
जगदीश चन्द्र पन्त,
लखनऊ ।
waah sahi kaha bhagwan to bas bhavna ke bhukhe hain...kabhi ahankar ka bhog lage to kya baat ho...
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