Friday, April 30, 2010

तथाकथित धर्मगुरुओं की सम्पन्नता और उनके नाचने का कारण

आज टेलीविजन पर अनेक धर्मगुरु भव्य पण्डालों में संगीत के सधे हुए साज़ों के साथ अपनी वाकपटुता एंव बाँडी लैंग्वेज का सुन्दर प्रयोग करते हुए प्रवचन देते हुए नज़र आते हैं । प्रवचन के बीच-बीच में तालियों की गडगडाहट सुनाई पडती है । जैसे पहले दौर में किसी फिल्म में कोई हीरो जब जोरदार डायलॉग बोलता था तो हाल तालियों की गडगडाहट से गुँज जाता था । पर अब सिनेमाहॉलों में तालियाँ नही बजती हैं । अब तो चाहे प्रवचन हो या कथा पुराण दोनों में नाचने का प्रचलन भी खूब हो गया है। यह नाचने की प्रव्रति दिन-प्रतिदिन बडती ही जा रही है ।

प्रवचन या कथा पुराण के श्रवण से आत्मिक एवं भावनात्मक सुख मिलता है तब हमारा आन्तरिक मन आनन्दित होता है । आध्यात्मिक ज्ञान तो हमें आत्मा और देह के अन्तर का ज्ञान कराता है । जो ज्ञान हमारी देह को आनन्दित कर रहा है वो वास्तव में भौतिक ज्ञान है । घोर भौतिक सुखों में लिप्त ये तथाकथित धर्मगुरु हमें देह ज्ञान के अलावा और दे भी क्या सकते हैं । इसलिए इनके प्रवचनों के असर से श्रोतागण फूहड नाच करने लगते हैं ।

इसके विपरीत मीरा के भक्तिमय रस में डूबे हुए शालीन मगन रुप को स्मरण कर मन आत्मविभोर हो जाता है, मन में भक्तिभाव उत्पन्न हो जाता है । हमने सूर, तुलसी, कबीर, गाँधी, विनोबा भावे और मदर टेरेसा को नाचते हुए कभी नही देखा और न ही उन्हें घोर भौतिक सुखों में लिप्त देखा है ।

अगर गहराई से देखा जाये तो ये तथाकथित धर्मगुरु ज्ञान बोध पर नही अपनी चरम भौतिक सत्ता प्राप्ति के बोध पर गाने-नाचने को आतुर रहते हैं । और इनकी तथाकथित धार्मिक सत्ता का मूलाधार होता है अधर्म से गहरा समझौता कि न हम तुम्हारे खिलाफ बोलेगें न हम अपने भक्तों को अधर्म के खिलाफ जाने देगें । अधार्मिक शक्तियाँ कहती हैं कि हम भी तुम्हारे मार्ग में कोई बाधा खडी नही करेगें।

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