आज टेलीविजन पर अनेक धर्मगुरु भव्य पण्डालों में संगीत के सधे हुए साज़ों के साथ अपनी वाकपटुता एंव बाँडी लैंग्वेज का सुन्दर प्रयोग करते हुए प्रवचन देते हुए नज़र आते हैं । प्रवचन के बीच-बीच में तालियों की गडगडाहट सुनाई पडती है । जैसे पहले दौर में किसी फिल्म में कोई हीरो जब जोरदार डायलॉग बोलता था तो हाल तालियों की गडगडाहट से गुँज जाता था । पर अब सिनेमाहॉलों में तालियाँ नही बजती हैं । अब तो चाहे प्रवचन हो या कथा पुराण दोनों में नाचने का प्रचलन भी खूब हो गया है। यह नाचने की प्रव्रति दिन-प्रतिदिन बडती ही जा रही है ।
प्रवचन या कथा पुराण के श्रवण से आत्मिक एवं भावनात्मक सुख मिलता है तब हमारा आन्तरिक मन आनन्दित होता है । आध्यात्मिक ज्ञान तो हमें आत्मा और देह के अन्तर का ज्ञान कराता है । जो ज्ञान हमारी देह को आनन्दित कर रहा है वो वास्तव में भौतिक ज्ञान है । घोर भौतिक सुखों में लिप्त ये तथाकथित धर्मगुरु हमें देह ज्ञान के अलावा और दे भी क्या सकते हैं । इसलिए इनके प्रवचनों के असर से श्रोतागण फूहड नाच करने लगते हैं ।
इसके विपरीत मीरा के भक्तिमय रस में डूबे हुए शालीन मगन रुप को स्मरण कर मन आत्मविभोर हो जाता है, मन में भक्तिभाव उत्पन्न हो जाता है । हमने सूर, तुलसी, कबीर, गाँधी, विनोबा भावे और मदर टेरेसा को नाचते हुए कभी नही देखा और न ही उन्हें घोर भौतिक सुखों में लिप्त देखा है ।
अगर गहराई से देखा जाये तो ये तथाकथित धर्मगुरु ज्ञान बोध पर नही अपनी चरम भौतिक सत्ता प्राप्ति के बोध पर गाने-नाचने को आतुर रहते हैं । और इनकी तथाकथित धार्मिक सत्ता का मूलाधार होता है अधर्म से गहरा समझौता कि न हम तुम्हारे खिलाफ बोलेगें न हम अपने भक्तों को अधर्म के खिलाफ जाने देगें । अधार्मिक शक्तियाँ कहती हैं कि हम भी तुम्हारे मार्ग में कोई बाधा खडी नही करेगें।
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